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विपक्ष की गोलबंदी कठिन लेकिन नीतीश के लिए नामुमकिन नहीं.

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सिटी पोस्ट लाइव :राजनीति एक ऐसी संवैधानिक किला है जिसमे घिर जानेवाला कभी बाहर नहीं आता और जिसकी घेराबंदी करनेवाला हर मुकाम पाटा है.बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आजतक इस किले में नहीं घिरे.वो किले की घेराबंदी कर पिछले डेढ़ दशक से सत्ता पर काबिज हैं.2019 में जब केंद्रीय सत्ता की लड़ाई छिड़ी थी वह दो साल पहले महागठबंधन छोड़कर NDA में वापस चले गए थे. लेकिन 2024 की लड़ाई के दो साल पहले ही वो दुबारा महागठबंधन में लौट आए है.

 

पिछली बार भी वो स्वाभाविक विपक्षी दावेदार बन सकते थे, लेकिन इस बार भी दौड़ से बाहर नहीं हैं. 2019 के जनादेश के बाद कांग्रेस से कुछ क्षेत्रीय दलों की एलर्जी ज्यादा मुखर हुई है. ऐसे में इन तमाम पार्टियों को एक साथ लाना सचमुच एक कठिन चुनौती है.इस चुनौती को नीतीश कुमार ने स्वीकार किया है.विपक्ष की एकता के सूत्रधार की भूमिका उन्हें सौंपी गई है. यह अकारण नहीं है. विपक्षी खेमे की बात करें तो नीतीश कुमार सबसे अनुभवी मुख्यमंत्री हैं. कभी जंगलराज के लिए बदनाम बिहार में बदलाव के जरिये एक समय नीतीश की छवि सुशासन बाबू की भी बनी. बेशक वह छवि बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार चलाते हुए बनी थी, जबकि अब दूसरी बार नीतीश महागठबंधन में उन्हीं लालू यादव के साथ आ गए हैं, जंगलराज के लिए जिनके परिवार को कोसते थे.लेकिन यहीं तो राजनीति है.

 

कहना मुश्किल है कि विपक्षी नेताओं के विरुद्ध CBI-ED जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई विपक्षी एकता की कवायद को तेज करती है या फिर इस कवायद से उनकी कार्रवाई रफ्तार पकड़ती है.दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के घर हुई नीतीश कुमार की बैठक के बाद दो राज्यों में सरकार वाली AAP के संयोजक अरविंद केजरीवाल की उनसे मुलाकात में सकारात्मक प्रतिक्रिया और अगले दिन NCP प्रमुख शरद पवार की खरगे व राहुल गांधी से मुलाकात के बाद यह कवायद गति पकड़ती नजर आ रही है.

 

जल्द ही शिवसेना नेता संजय राऊत की राहुल गांधी से मुलाकात भी होगी.फिर शायद मुंबई में राहुल और उद्धव ठाकरे मिलेंगे. बेशक दलगत स्वार्थ और अहं के टकराव में बिखरे विपक्ष के हर दल-नेता में संपर्क-संवाद-समझदारी का महत्व है, लेकिन पवार और ठाकरे की भूमिका खास इसलिए है, क्योंकि पिछले दिनों हुए घटनाक्रम के बाद इनकी कांग्रेस से दूरी की अटकलें लगाई जाने लगी थीं.लेकिन पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के चलते खरगे के घर बैठक में शामिल नहीं हो पाए पवार अगले दिन दिल्ली आकर उनसे और राहुल से मिले. NCP सुप्रीमो ने साफ कर दिया कि विपक्षी एकता समय की मांग है और उस दिशा में हरसंभव प्रयास किया जाएगा.

 

बीजेपी के साथ ही कांग्रेस से भी समान दूरी बनाने की वकालत करने में समाजवादी पार्टी और BRS के अलावा तृणमूल कांग्रेस, AAP और BSP ज्यादा मुखर रही हैं.कांग्रेस के साथ इन दलों की संवादहीनता इस हद तक है कि किसी मध्यस्थ के जरिये ही बात हो सकती है. इसीलिए नीतीश कुमार को यह दायित्व सौंपा गया है कि वे इन दलों के नेताओं को कांग्रेस के साथ बातचीत के लिए बिठाने की भूमिका तैयार करें.ये काम आसान नहीं है, लेकिन नीतीश के राजनीतिक अनुभव और छवि के मद्देनजर नामुमकिन भी नहीं माना जा सकता.

 

विभाजित जनता परिवार के सदस्य अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और जयंत चौधरी की RLD को कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन मायावती का मन तो हमेशा चुनाव से पहले ही पता चलता है.दिल्ली के बाद पंजाब में भी सरकार बनाने और अब राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने के बाद अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं का छलांगें मारना स्वाभाविक है, लेकिन केंद्रीय जांच एजेंसियों का अंकुश उन पर लगा है. पिछले साल तेलंगाना के मुख्यमंत्री KCR भी BRS बनाकर प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे थे, लेकिन दिल्ली के शराब नीति घोटाले की जांच की आंच उनकी बेटी तक पहुंचने के बाद हालात बदले हैं.

 

तेवर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भी बदले हैं, जिन्होंने पिछले महीने ही सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस से हार के बाद तृणमूल कांग्रेस के अगला लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया था.तमिलनाडु और झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन में कांग्रेस शामिल है। वाम मोर्चा भी कांग्रेस से गठबंधन कर पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा विधानसभा चुनाव लड़ चुका है.इन सबके बावजूद एकता की राह सहज नहीं होगी. इन राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच सीटों का बंटवारा खासा मुश्किल होगा. तृणमूल और वाम मोर्चा एक साथ कैसे आ सकते हैं? सवाल ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी का भी है. ये दोनों अकेले दम राज्य में सरकार बनाने में सक्षम हैं. दोनों अभी तक राष्ट्रीय राजनीति में तटस्थ भूमिका निभाते रहे हैं.

 

जगन की YSR कांग्रेस ने तो वक्त-जरूरत राज्यसभा में मोदी सरकार की मदद भी की है. ऐसे में विपक्षी एकता की तस्वीर में सही और पूरे रंग भरने के लिए नीतीश को शरद पवार की जरूरत पड़ सकती है, जिन्हें महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार चलाने में ही नहीं, कांग्रेस-शिवसेना जैसे विपरीत ध्रुवों को भी साथ लाने में महारत हासिल है. नेतृत्च का मुद्दा बाद के लिए छोड़ साझा अजेंडा बनाने की सोच निश्चय ही समझदारी का संकेत है.

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