आखिर क्या है हमारी पुलिस की विफलता का राज? आखिर क्या वजह है की तमाम भगीरथ प्रयासों और मशक्कत के बाद भी हमारी पुलिस जनता के बीच आजतक अपनी वह छवि नहीं बना पायी है जो विदेशों में वहाँ की पुलिस ने बना रखी है।

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विशेष : रील पुलिस को तालियां और रीयल पुलिस को गालियां
सिटी पोस्ट लाइव : आज हम एक गंभीर विषय पर ना केवल चर्चा कर रहे हैं बल्कि देश स्तर पर इस विषय पर तटस्थ बहस और विमर्श हो इसकी अपील भी कर रहे हैं। देश के संविधान क्रियान्वयन के समय से ही एक प्रश्न आजतक बेउत्तर मौजूं है। आखिर क्या है हमारी पुलिस की विफलता का राज? आखिर क्या वजह है की तमाम भगीरथ प्रयासों और मशक्कत के बाद भी हमारी पुलिस जनता के बीच आजतक अपनी वह छवि नहीं बना पायी है जो विदेशों में वहाँ की पुलिस ने बना रखी है। हमारी समझ से इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही साधारण है और वजह भी कोई खास नहीं है। व्यापक परिदृश्य में आंकड़ों पर गौर करें तो “हमारे देश के लोग कानून से नहीं बल्कि पुलिस से डरते हैं”जबकि इसके ठीक उलट विदेशों में लोग अपने देश के कानून को सम्मान देते हैं और पुलिस को सहयोग। वहाँ की जनता अपनी पुलिस से नहीं बल्कि देश के कानून से डरती है।
जाहिर तौर पर यही कारण है की विदेशों में पुलिस कामयाब और सम्मानित है लेकिन अपने देश में पुलिस ठीक इसके विपरीत नजर आती है। भारतीय परिवेश में आज “खाकी”का नाम जुवां पर आते ही एक अजीबो-गरीब छवि आँखों के सामने आ जाती है। आम धारणा यह है की खाकी वर्दी में जो व्यक्ति है वह कठोर, निर्दयी, भ्रष्ट और हैवान है और जिसका भय भारतीय जनता के बीच वर्षों से बना हुआ है। हांलांकि मुट्ठी भर ऐसे लोग जरुर हैं जो खाकी पहने व्यक्तियों को समझते हैं। उन्हें पता है उनकी परेशानियां, मजबूरियां, आवश्यकताएं और अपेक्षाएं। यहाँ गौरतलब है की उन खाकी वर्दीधारियों की ऐसी छवि बनायी किसने और लोग यह क्यों नहीं समझते हैं की उनका भी एक परिवार है।उनकी भी एक व्यक्तिगत जिन्दगी है।उन्हें भी समाज से ना केवल अपेक्षा है बल्कि उनके सीने में भी धड़कता हुआ एक दिल है।क्या लोगों ने कभी यह सोचने की जहमत उठायी है की वह अपने परिवार को कितना समय दे पाते हैं।
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अगर उनकी तैनाती दूर-दराज के इलाके में है तो वे कितने अरसे बाद अपने स्वजन-परिजनों की एक झलक देख पाते हैं?दिन हो या रात अफसरों के तेवर और अपराधियों की चुनौतियों के बीच वे अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन आखिर कैसे बरकरार रख पाते हैं? ज़रा समझिये की हेलमेट पहनने में आपकी सुरक्षा है लेकिन उसे पहनाने की जिम्मेदारी पुलिस की? गलत तरीके से वाहन चलाने पर दुर्घटनाग्रस्त आप होते हैं लेकिन आपको अस्पताल पहुंचाने की जिम्मेदारी पुलिस की?अपने समाज पर अत्याचार होता देख आप, अपने घर में दुबक जाते हैं लेकिन उस अत्याचारी से बचाने की जिम्मेदारी पुलिस की? आँखों के सामने कत्ल हुआ किसी का लेकिन गवाह ढूंढने की जिम्मेदारी पुलिस की? ऐसी ही ना जाने कितनी समस्याएं हैं जिसके जिम्मेवार हम स्वयं हैं लेकिन सारी जिम्मेदारी पुलिस की।
यहाँ एक विचित्र बात पर प्रकाश डालना आवश्यक है की आम नागरिक अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं लेकिन जब अपने सामाजिक कर्तव्यों और दायित्वों की बात आती है वे उसकी उपेक्षा कर अनभिज्ञता प्रकट कर देते हैं। अगर सामान्य नागरिक की किंचित जागरूकता और सहयोग हमारी पुलिस को मिल जाए तो हम डंके की चोट पर कहते हैं की हमारी पुलिस कितनी सक्रिय हो सकती है, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते? ज़रा आप तुलना करिए नागरिक सुरक्षा बल और सेना के बीच संसाधन और सुविधाओं की तो स्वतः ही आपकी सहानुभूति नागरिक सुरक्षा बल के प्रति हो जायेगी। सैनिक शहीद हो तो मान-सम्मान और आर्थिक अनुदान। लेकिन एक कांस्टेबल अवकाश प्राप्त हो तो अपने ही पेंशन के लिए कार्यालयों के अनगिनत चक्कर, अधिकारियों के समक्ष एड़ियों की रगड़ और खतो-किताबत, तब जाकर कहीं मिलता है मामूली सा पेंशन।
उस मामूली पेंशन से उसके परिवार की तो छोड़िये,उसके खुद का गुजारा हो पाना भी मुश्किल है।सेना का जवान गर्व से कहता है की मैं “फौजी?लेकिन एक कांस्टेबल के दिल से पूछिये तो वह बताएगा की कितनी तकलीफों से सनी होती है पुलिस की नौकरी।उसका दिल रोता है लेकिन उसे अपनी जुबान बंद रखनी पड़ती है। जानते हैं क्यों? वह इसलिए की उसे ही सुननी है हमारी और आपकी फ़रियाद और उसे ही करनी है हमारी और आपकी सुरक्षा। चूँकि पुलिस पर तरह-तरह के आरोप लगते रहते हैं इसलिए आज हम इस विषय को गंभीरता से उठाने का प्रयास कर रहे हैं। भारत जैसे विशाल देश में आजादी के बाद धर्मों को सम्मानपूर्वक देखने का सपना हमारे राष्ट्र नायकों ने देखा था। उन्होनें कल्पना की थी की उनके बाद की पीढियां उसका अक्षरशः अमल करेगी।लेकिन बड़े खेद की बात है की इस धर्म निरपेक्ष देश में आज सभी राजनीतिक पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए जनता को धर्म, जाति, वर्ण, लिंग इत्यादि के प्रति उत्प्रेरित कर के देश को ना जाने कितने भागों में बाँट रही है। लेकिन इस भयावह स्थिति के बीच एक ऐसा कौम है जो सभी भेद-भाव को भूलकर न केवल एकजुट होकर बल्कि धर्मनिरपेक्ष होकर रात-दिन देश की आंतरिक सुरक्षा कर रहा है।
बाबजूद इसके विडंबना देखिये की उनकी इस ईमानदारी पर आजतक किसी का ध्यान नहीं गया। क्या हमने कभी सोचा है की भारतीय पुलिस ने स्वतंत्रता से लेकर आजतक कभी भी अपना कार्य धर्म इत्यादि के आधार पर किया? पुलिस ने कभी यह कहा है की आप हिन्दू हैं तो आपकी प्राथमिकी दर्ज की जायेगी?क्या आप मुसलमान हैं, तभी आपकी सुरक्षा की जायेगी?सिख होकर दुर्घटना के शिकार हुए व्यक्ति ही ईलाज के लिए अस्पताल पहुंचाए जायेंगे? इसाई की लाश अगर लावारिश मिले तो उसे दफनाया जाएगा? निम्न और पिछड़ी जातियों को थाने में आने की मनाही है? क्या उच्च जाति के लोगों के लिए थाने में कालीन बिछी है?बड़ी अहम् बात है की जहां हमारे देश में धर्म और जाति के नाम पर तरह-तरह के खेल हो रहे हैं वहीँ पुलिस पुरे देश में धर्म निरपेक्ष होकर अपराधियों से मुकाबला कर रही है।
यही नहीं हमारी समझ से पुलिस जनता को बिना किसी भेदभाव के सुरक्षा देने का हर संभव प्रयास भी कर रही है। अब इस पुरे प्रकरण में पुलिस कितना कामयाब है, यह एक अलग बात है। जहां तक हमारी समझ जाती है उसके मुताबिक वर्दी का कोई मजहब नहीं होता और पुलिस किसी धर्म विशेष के लिए कतई काम नहीं करती है।पुलिस की गोली सिर्फ अपराधियों पर चलती है और चलने से पहले यह नहीं पूछती है की आप किस धर्म के हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं जब अपराध में लिप्त कई धर्म गुरुओं को पुलिस ने दबोचा है। पद, रसूखवालों से लेकर बड़े ओहदेदारों और राजनेताओं को भी पुलिस ने बेड़ियाँ पहनाई है। हमारी पुलिस कौमी एकता की प्रतीक है। लेकिन इन तमाम सच के बीच अनगिनत वाकये इस बात के गवाह हैं की पुलिस पर से आमजन का भरोसा आज एक तरह से कहें तो तो उठ सा गया है। पुलिस को लेकर ना तो कोई अच्छा सोच रहे हैं, ना अच्छा बोल रहे हैं और ना अच्छा लिख रहे हैं।
हमने तकरीबन “विवादास्पद”बनी पुलिस पर समीचीन और तटस्थ पड़ताल की एक कोशिश की है। वर्तमान परिवेश में फिल्म आज भी जनता के मनोरंजन का मुख्य साधन है। खासकर ऐसी फिल्में जिसमें एक्शन,मारधाड़ और रोमांच हो तो उसका जादू सर चढ़कर बोलता है। यूँ हिंदी फिल्मों का फार्मूला कमोबेस एक ही होता है जिसमें हीरो-हिरोईन, नाच-गाना,विलेन और अंत में क्लाईमेक्स। इसी क्रम में पुलिस का प्रवेश होता है, फिर भाग-दौड़,गोला-बारूद और विलेन की मौत या फिर उसकी नाटकीय ढंग से गिरफ्तारी होती है। यहाँ पर पुलिस की कार्यशैली और उसके जांबाज अंदाज के लिए दर्शकों की भरपूर तालियाँ मिलती है।इतिहास गवाह है की आजतक लगभग सभी नायकों चाहे वह अमिताभ बच्चन,धर्मेन्द्र, संजीव कुमार,दिलीप कुमार,शशि कपूर, ओमपुरी, संजय दत्त, शाहरुख खान, सलमान खान, सन्नी देओल, अजय देवगन, सुनील सेट्ठी, अक्षय कुमार और ना जाने कितने कलाकारों ने पुलिस के रूप में पोजेटिव भूमिका निभायी है।
दर्शकों ने इन फिल्मी पुलिसवालों के लिए ना केवल भरपूर तालियाँ बजाई है बल्कि जमकर उनकी तारीफ भी की है। लेकिन ये रील लाईफ की पुलिस है। रीयल लाईफ की पुलिस का अवलोकन करें तो हमारी पुलिस बिना बेहतर संसाधन के वास्तव में सामाजिक विलेनों से हरपल लड़ रही है। यहाँ यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की वह काफी हद तक अपनी सीमाओं में बंधे होने के बाद भी कामयाब है। फिर भी हमें केवल उनकी नाकामियाँ ही नजर आती हैं और नतीजतन उन्हें गालियाँ दी जाती है।
अगर हमारी पुलिस सच में काहिल और निकम्मी भर है तो आज भारत के सभी कारागारों में अपराधी खचाखच कैसे भरे हैं? क्या वे अपने गुनाह स्वयं कबूल करके जेल गए हैं। अगर हमारी पुलिस घर बैठे सिर्फ वेतन ले रही है तो फिर भारत के सभी छोटे-बड़े न्यायालयों में करोड़ों अपराधिक मुकदमें क्या यूँ ही चल रहे हैं?
नागरिक सुरक्षा बल और सैन्य बल के संसाधन और जिम्मेवारियों की अगर तुलना की जाए तो चौंकाने वाले सच सामने आते हैं।बड़ा सवाल यह है की क्या नागरिक सुरक्षा बल को सैनिकों जैसी सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है? क्या पुलिस को भी सेना की भांति सम्मान की जरुरत नहीं है? क्या पुलिस को सैनिकों की तरह अवकाश की दरकार नहीं है? यह बिल्कुल आईने की तरह साफ है की अगर पुलिस को हम ऐसी सुविधाएं मुहैय्या करा दें तो हमारा हर कांस्टेबल ना केवल अजय देवगन और हर दारोगा अमिताभ बच्चन होगा बल्कि यथार्थ की पुलिस बिल्कुल फिल्मों जैसी होगी और फिल्म की तरह The End हमेशा सुखदायी होगा। आखिर में आपसे एक बात पूछने की कोशिश कर रहा हूँ।आप ने एक डॉक्टर, एक शिक्षक, एक अधिकारी से लेकर रसूखदारों और नेताओं तक को एक जुमला जरुर कहा होगा लेकिन क्या आपने कभी एक पुलिसवाले से कभी “थैंक यू “कहा है? ईमानदारी से कभी उन्हें भी “थैंक यू”कहकर देखिये।मेरा दावा है की उनकी आँखे ना केवल भर आएँगी बल्कि उनका कलेजा मुंह को आ जाएगा।
पीटीएन न्यूज मीडिया ग्रुप से सीनियर एडिटर मुकेश कुमार सिंह की “विशेष” रिपोर्ट
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