विपक्षी एकता और उसकी चुनौतियाँ .

Opposition unity and its challenges.

सिटी पोस्ट लाइव :  विपक्षी एकता का आरंभ जिस जुनून के साथ नीतीश ने किया था, उसके अनुरूप उन्हें रिजल्ट मिलता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है.उन्हें एहसास होने लगा है कि इसका कोई खास लाभ उनके नाम-काम के अनुरूप नहीं मिलनेवाला.बेंगलुरु की बैठक से उन्हें यह भी एहसास हुआ कि राजनीति के वे अकेले धुरंधर नहीं हैं. कह तो रहे हैं कि विपक्षी एकता में जो कुछ भी हुआ, वह उनके मन के मुताबिक ही था. उन्हें अगले दिन राजगीर जाना था, इसलिए साझा प्रेस कांफ्रेस में शामिल हुए बगैर लौट आए ये  बात किसी के गले नहीं उतर रही.

 

बेंगलुरु से पटना की सीधी फ्लाइट में दो-ढाई घंटे से अधिक का वक्त नहीं लगता. कुछ देर और रुक जाते तो कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि वे चार्टर्ड प्लेन से गए थे और उसके लिए उड़ान की कोई निर्धारित समय सारणी नहीं होती. दरअसल नीतीश ने पीएम पद की दावेदारी दांव पर लगा कर ही विपक्ष को एकजुट किया था. उन्हें उम्मीद थी कि एकजुटता प्रयास के सूत्रधार होने के नाते उन्हें संयोजक बना दिया जाएगा. पटना की बैठक के बाद कहा भी गया था कि अगली बैठक में संयोजक बनाने समेत बाकी मुद्दे तय होंगे. लेकिन बैठक में अपने साथ कांग्रेस का सुलूक और बाकी विपक्षी दलों का रुख देख कर उन्हें यकीन हो गया कि उनकी कोशिश बालू से तेल निकालने जैसी है. नीतीश जी कुछ भी कहें, पर उनके इस अंदाज ने तो संदेह के बीज तो बो ही दिए हैं.

 

सबसे बड़ा सवाल है कि पटना में जिस विपक्षी एकता की नींव पड़ी, वह बेंगलुरु पहुंच कर विस्तारित जरूर हुई, लेकिन इसके साथ ही उन मुद्दों को गठबंधन कैसे सुलझाएगा, जहां पहुंच कर विपक्षी एकता टूटती रही है ? वह है सीटों का बंटवारा और राज्यों में आपसी टकराव। विपक्षी एकता के नाम पर बेमेल गठबंधन कभी कामयाब नहीं हो सकता. कोई 11 नहीं, 21 लोगों की कमेटी इसके लिए बना ले, इस पेंच को सुलझाना आसान नहीं.

विपक्षी एकता की बात टुकड़े-टुकड़े में ममता बनर्जी और केसी राव ने शुरू की थी. तीसरी कोशिश नीतीश कुमार ने कांग्रेस की सहमति से शुरू की. शीर्ष नेताओं को विपक्षी एकता से कोई परेशानी तो नहीं हुई, लेकिन राज्य स्तर के नेता-कार्यकर्ता इस कवायद से हैरान-परेशान हैं. खासकर पश्चिम बंगाल, दिल्ली और केरल में इसे लेकर भीतर ही भीतर भारी उबाल है. अधीर रंजन चौधरी पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष और सांसद हैं. ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) से किसी तरह के गठबंधन के पक्ष में वे नहीं हैं.

 

ममता बनर्जी ने जिस तरह कांग्रेस के साथ बंगाल में व्यवहार किया है, उससे चौधरी की नाराजगी को नकारा नहीं जा सकता. इसीलिए वे अक्सर बंगाल में गठबंधन के खिलाफ बोलते रहे हैं. जिस दिन बेंगलुरु में विपक्षी दलों की बैठक चल रही थी, उसी रात बंगाल बीजेपी के एक नेता अधीर रंजन चौधरी का हालचाल पूछ रहे थे. यह खतरा सभी दलों के लिए है. बंगाल में अभी कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां साथ हैं. लेफ्ट में दबदबा सीपीएम का है. विपक्षी बैठक के तुरंत बाद सीपीएम के शीर्ष नेता सीताराम येचुरी ने कहा कि बंगाल में टीएमसी के साथ सीपीएम का कोई समझौता नहीं होगा. गठबंधन में चुनाव होगा, लेकिन राज्य स्तर पर तालमेल किया जाएगा.

 

महाराष्ट्र में पहले शिवसेना टूटी. बाद में एनसीपी भी टूट गई. खुद को सेकुलर पॉलिटिक्स के पैरोकार बताने वाले शरद पवार की उम्र भी अब राजनीति में सक्रिय रहने की नहीं रह गई है. उनका परिवार सियासत के अखाड़े में जरूर जमा है. परिवार के कई लोग राजनीति में हों तो खटपट स्वाभाविक है. इसलिए कि सबकी चाहत आगे बढ़ने की रहती है और आगे बढ़ने के लिए लंगड़ी मारने में कोई अपने-पराये की पहचान नहीं कर पाता. ऐसे में अनबन तो होगी ही. शरद पवार ने जब अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था तो इसके पीछे सियासी अनबन ही थी. समाधान भी उन्होंने ईमानदारी से नहीं किया. बेटी को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया और भतीजे अजित पवार को छोड़ दिया.

 

विपक्ष के सामने एकजुटता को अमल में लाने की राह में तीन अहम रुकावट दिखती हैं. पहला तो संयोजक का चयन, दूसरा सीटों का बंटवारा और तीसरा प्रधानमंत्री का चेहरा. प्रधानमंत्री का चेहरा चुनाव परिणाम आने तक टाला जा सकता है. संयोजक का चयन भी थोड़ी तनातनी के बीच हो सकता है. लेकिन सीटों के बंटवारे में सबके पसीने छूट जाएंगे. पिछले चार-पांच लोकसभा चुनावों को देखें तो कांग्रेस कभी 400 से कम सीटों पर नहीं लड़ी. गठबंधन में पहली बार ऐसा होगा, जब कांग्रेस को पिछली बार से कम सीटों पर लड़ना पड़ेगा. कांग्रेस ने वैसे भी 350 सीटों पर लड़ने का मन बनाया है. यानी विपक्ष के लिए कांग्रेस को तकरीबन 200 सीटें छोड़ने में कोई आपत्ति नहीं है. पर, ये 200 सीटें कहां की होंगी ?

 

बिहार में 40 सीटें हैं, बंगाल में 42 सीटें हैं, झारखंड में 14 सीटें हैं, यूपी में 80 हैं तो महाराष्ट्र में 48 सीटें हैं. कांग्रेस शासित चार राज्यों को छोड़ दें तो इन राज्यों में कौन कांग्रेस के लिए सीट छोड़ने को तैयार होगा, ताकि वह 350 सीटों पर लड़ सके. जिस तरह येचुरी बंगाल के बारे में बोल रहे और केरल इकाई कांग्रेस से समझौते के खिलाफ है, वैसे में वहां कांग्रेस क्या करेगी ? इसलिए नवंबर-दिसंबर के बाद ही साफ हो पाएगा कि विपक्ष एनडीए के खिलाफ वन टू वन फाइट की जो बात बार-बार कह रहा है, वह कितना सफल हो पाएगा.

 

विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं को लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव के लिए समर्थकों और कार्यकर्ताओं को मना लेंगे तो यह बड़ा मुश्किल काम है. बिहार में आरजेडी के साथ जेडीयू के जाने का खामियाजा नीतीश कुमार झेल रहे हैं. नेता-कार्यकर्ता जेडीयू की इस दोस्ती को पचा नहीं पा रहे. बंगाल में टीएमसी समर्थकों की प्रताड़ना कांग्रेस और वाम दलों के कार्यकर्ता कैसे भुला पाएंगे ? समर्थकों को शीर्ष नेता भेड़-बकरी समझ रहे, उन्हें डंडे से जिधर चाहें हांक लें. पर, ऐसा हो नहीं पाएगा और अपना अस्तित्व बचाने के लिए कई राजनीतिक दल आत्मघाती कदम उठाने से शायद बचना भी चाहेंगे. तभी तो विपक्षी बैठक के तुरंत बाद सीताराम येचुरी को यह कहना पड़ा कि बंगाल में टीएमसी से कोई समझौता नहीं होगा.

Opposition unity and its challenges.