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पटना यूनिवर्सिटी के हॉस्टल बने जाति-धर्म का अखाड़ा.

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सिटी पोस्ट लाइव : पटना यूनिवर्सिटी को बिहार के ऑक्सफ़ोर्ड के नाम से जाना जाता था.इसकी  पहचान भारत के प्रमुख शैक्षणिक केंद्र के तौर पर होती रही है.इस विश्व विद्यालय के दो दर्जन से ज्यादा छात्र हर साल संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अव्वल आते थे. 1974 के छात्र आंदोलन में इस विश्वविद्यालय के छात्र लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी और रविशंकर प्रसाद ने अहम् भूमिका निभाई.पटना यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रों के लिए बने हॉस्टलों की भी अपनी पहचान रही है.पटना कॉलेज के 115-116 साल पुराने छात्रावासों में हर कमरे से आईएएस–आईपीएस निकलते थे.. मिंटो छात्रावास के लिए तो कहा ही जाता था, ”मिंटोनीयन्स रूल इंडिया.’

 

‘पटना यूनिवर्सिटी के इन छात्रावासों में रहे छात्रों में बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, भूतपूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे और अर्थशास्त्री नवल किशोर चौधरी जैसे नाम गिने जा सकते हैं.इसके साथ ही पटना कॉलेज के मौजूदा प्राचार्य तरुण कुमार, बिहार के मुख्य सचिव आमिर सुबहानी, जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे आरसीपी सिंह, धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष रहे किशोर कुणाल, आईपीएस मनोज नाथ, विष्णु दयाल राम और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गुप्तेश्वर पांडेय जैसे छात्र भी यहीं से निकले हैं.

 

लेकिन पिछले कुछ दशकों में यूनिवर्सिटी की शैक्षणिक पहचान मिटटी में मिल गई है. जिन हॉस्टल में कभी टॉपर रहते थे उनमे आज अराजक तव रहते हैं.हॉस्टल की व्यवस्थाओं को लेकर लगातार निराशाजनक ख़बरें आती रही हैं.अभी कुछ महीने पहले ही पटना कॉलेज के इक़बाल और जैक्सन हॉस्टल में रहने वाले छात्रों के बीच बमबाज़ी की ख़बर आई थी.यह घटना इस साल जुलाई की है. इसके तुरंत बाद पटना यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पटना कॉलेज के तीनों हॉस्टलों को ख़ाली करवाकर उन्हें सील कर दिया था.यूनिवर्सिटी प्रशासन के इस क़दम ने उन छात्रों के लिए मुसीबत पैदा कर दी जिन्हें हॉस्टल में जगह मिली हुई थी.

 

पटना यूनिवर्सिटी के कुछ हॉस्टलों में बीते कई दशकों से छात्रों को जाति और धार्मिक पहचान के आधार पर जगह मिलती रही है. 1917 में स्थापित पटना कॉलेज और बीएन कॉलेज के हॉस्टल में ऐसी परंपरा बन गई है जिसे विश्वविद्यालय प्रशासन चाह कर भी नहीं तोड़ पा रहा है.पटना यूनिवर्सिटी में कुल 25 हॉस्टल हैं. इनमें क़रीब एक हज़ार छात्र -छात्राएँ रहते हैं.इनमें से पटना कॉलेज में तीन, साइंस कॉलेज में पाँच, मगध महिला कॉलेज में तीन और लॉ कॉलेज में एक हॉस्टल है.इसके साथ ही बीएन कॉलेज में दो, पटना ट्रेनिंग कॉलेज में दो, आर्ट एंड क्राफ़्ट कॉलेज में एक, यूनिवर्सिटी कैम्पस में पाँच पीजी और छात्राओं के लिए तीन हॉस्टल हैं.इसके अलावा पटेल हॉस्टल है, जिसे कुर्मी हितकारिणी न्यास ने 1941 में अवधिया (उपजाति) कुर्मी छात्रों के लिए खोला था. साल 1970 में इसे सभी कुर्मी छात्रों के लिए खोल दिया गया.

 

क़ानून व्यवस्था के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा दिक़्क़त पीजी रानीघाट, पटना कॉलेज (मिंटो, जैक्सन, इक़बाल हॉस्टल), बीएन कॉलेज (मेन, सैदपुर हॉस्टल नंबर पाँच) और पटेल हॉस्टल में पैदा होती रही है.इनका जातीय पैटर्न देखें, तो बीएन कॉलेज भूमिहार बहुल और पीजी रानीघाट यादव बहुल हॉस्टल है.इसके साथ ही इक़बाल हॉस्टल में सिर्फ़ मुस्लिम छात्रों और पटेल हॉस्टल में सिर्फ़ कुर्मी जाति के छात्र रह सकते हैं. मिंटो और जैक्सन हॉस्टल में दलित और पिछड़े वर्गों से आने वाले छात्र ज़्यादा संख्या में रहते आए हैं.

 

पहला हॉस्टल की जातीय गोलबंदी–अपराधीकरण हुआ और दूसरा मेधावी लड़कों ने हॉस्टल में रहने से तौबा कर ली. ”जिस हॉस्टल में जो जाति हावी है वो दूसरी जाति के छात्र को रहने ही नहीं देती. अगर दूसरी जाति का छात्र वर्चस्व वाली जाति के टर्म और कंडीशन का पालन करेगा, तभी वो हॉस्टल में रह पाएगा. ये हॉस्टल्स का अलिखित संविधान बन गया है.”पटना यूनिवर्सिटी के ये हॉस्टल जातीय और धार्मिक लिहाज से बँटे हुए हैं. इन हॉस्टल में उन छात्रों का रहना ही मुश्किल है, जिन्हें ये हॉस्टल आबंटित हुआ है.मिंटो, जैक्सन और इक़बाल का आबंटन किया गया है. लेकिन वहाँ से शिकायतें मिलनी शुरू हो गई है कि वहाँ अवैध तरीक़े से रह रहे लोग छात्रों को घुसने ही नहीं दे रहे हैं.”उस वक़्त इक़बाल में दो तरह की मेस चलती थी, हिंदू और मुस्लिम मेस. इक़बाल हॉस्टल में सिर्फ़ मुस्लिम छात्र रहते हैं.इस तरह के जातीय और धार्मिक वर्गीकरण के चलते हॉस्टल्स के बीच लड़ाई होना आम बात है.कभी-कभी ये लड़ाई पटना यूनिवर्सिटी के हॉस्टल वर्सेज आउटसाइडर की भी हो जाती है.

 

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2023 में जुलाई तक पटना यूनिवर्सिटी कैम्पस में 15 बार बमबाज़ी और फ़ायरिंग की घटनाएँ हुईं. 70 के दशक के आरंभ से ही बिहार के विश्वविद्यालयों का पतन तेज़ी से हुआ. किसी भी कुलपति ने अपनी तीन साल की अवधि पूरी नहीं की, राज्य सरकार में बदलाव के साथ ही कुलपति बदल जाते थे.यानी 70 का दशक ही वो था जब विश्वविद्यालय में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ा. 80 का दशक आते-आते पटना यूनिवर्सिटी कैम्पस और हॉस्टल में मारपीट और हत्याओं का दौर शुरू हुआ.दिसंबर 1982 में यूनिवर्सिटी के हथुआ हॉस्टल में पिपरा नरसंहार के दोषी ललन सिंह की हत्या सबसे ज़्यादा सुर्ख़ियों में रही.”उसके बाद तो हॉस्टल में पिस्टल और बम की बरामदगी कोई नई बात नहीं रही. नेता और उफान मारती जातीय राजनीति के संरक्षण में हॉस्टल अवैध लोगों के रहने के अड्डा बने. इनका इस्तेमाल जातीय राजनीति में सहायक कारक के तौर पर हुआ, जो अब भी जारी है.”

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